मन, कब तक तुम फुसलाओगे,
मुझको यूँ बहलाओगे|
ये आज गुजरने बाला है,
फिर लौट न आने बाला है|
कुछ कार्य परम करवा न तू,
ऐसे मुझे बहला न तू |
तू तर्क बहुत ही देता है,
क्यों पग -पग पे भरमाता है|
तू ऐसे मुझे कमजोर न कर,
धार अंतर्मन(बुद्धि) की कुंद न कर |
तुझे परम पिता ने दिया मुझे,
नित नयी शक्ति से भरने को |
तू तो निज उन्नति हेतु सखा,
तू ऐसे मुझे कमजोर न कर|
कर तिलक संग्राम का भेज मुझे,
उस राह पे जिस पे जाना हो|
गर लौट नही भी आना हो,
फिर भी उस डगर भेज मुझे |
तू अपना फर्ज निभा दे सखा,
मै अपना फ़र्ज़ निभाऊंगा|
जिस कारन परम-पिता ने,
तुझे दिया मुझे ...
मै कार्य वो कर पाऊँगा ,
तब निज गृह मै पाऊँगा|
ये मन की हालत है और ये शिकवा बुद्धि मन से कर रही है,
बुद्धि आत्मा के करीब होती है उसे अपना लक्ष्य भली भांति पता है|
लेकिन मन उसे भरमाये रखता है इन्द्रियों के जंजाल में,
इसे मै व्यथा बुद्धि की भी कह सकता हूँ|
ये हर एक के लिए है...... ......कुंवर ......
धीरज धर्लो मेरे मन इतना तो मत बनो अधीर
जवाब देंहटाएंवो निर्मोही प्रीत न जाने जिनके लिए बहते नीर
Dhanybad...lagta hai man buddhi ki bat man lega...!
जवाब देंहटाएंamazing.......beautifully explained the relationship between heart nd brain.(man aur buddhi)......very nice poetry
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