हे गुरु,
जब वो मेरे ही अन्दर है,
तो मन में ये अँधेरा कैसा|
हर पल को लुटने वाला,
ये लुटेरा कैसा|
भान है उस वक्त का,
ज्ञान है उस सत्य का|
फिर भी फिसल जाता हूँ क्यों,
रात की सन्नाटे में खो जाता हूँ क्यों|
क्या यूँ ही चलना होगा,
रात के सन्नाटे को भी जीना होगा|
जीवन जो एक दर्शन है,
ज्योति जो आकर्षण है,
दृश्य कब होंगे मुझे |
एक ज्योति से ही प्रज्वलित हर देही है,
ये भान कब होगा मुझे|
सुन रखा है बार- बार,
पर दृश्य कब होंगे मुझे|
गुरु तो एक सत्ता है,
और हूँ सम्पर्पित उस सत्ता को|
भान है उस वक्त का,
ज्ञान है उस सत्य का|
जब ये खग उडेगा,
जब ये खग उडेगा|
तोड़ कर हर निजता को,
पाने को उस प्रभुता को |
जो आकांक्षित कर रखा है, जन्मों से |
जो आकांक्षित कर रखा है, जन्मों से |
सुन रक्खी है मैंने ढेर सारी बातें, कुछ पढ़कर तो कुछ महापुरुषों से लेकिन ये साक्षात् कब होगा जीवन में| ये जो रहस्य रूपी चादर ओढ़ रक्खी है जीवन ने, ये चादर कब हटाई जायेगी|
सबाल है कि दिये के निचे जो अँधेरा है उसे कैसे मिटाऊँ................कुंवर......
गुरुवार, 14 मई 2009
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