गुरुवार, 14 मई 2009

जीवन की सतरंगी वेला

जीवन की सतरंगी वेला,
कैसे हो गया अकेला |

घर से चला था सपनों लेकर,
टूट गया ये मोती बनकर |

छुट गया घर -छूटे अपने,
घर की माटी भी हैं सपने|

हर पल कहता - क्या हो गया ये,
कहाँ को चले थे -कहाँ गए ये|

क्या मैं दिखाऊँ-कुछ संभाला,
समय से ऐसा परा मेरा पाला,
हो गयी सतरंगी वेला ये अकेला|

शायद इसमें ही कुछ मिल जाय,
जिसके लिए चला था,
वो भी संभल जाय|

फिर से जागी है इक आशा,
रात भयाबह अब जायेगी,
अपनी सुबह अब आएगी |

नीरसता को सींची आशा,
फिर से दे डाली मुझे सपने,
सपने पुरे होने पर,
मिल जायेंगे घर और अपने|

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