जीवन की सतरंगी वेला,
कैसे हो गया अकेला |
घर से चला था सपनों लेकर,
टूट गया ये मोती बनकर |
छुट गया घर -छूटे अपने,
घर की माटी भी हैं सपने|
हर पल कहता - क्या हो गया ये,
कहाँ को चले थे -कहाँ आ गए ये|
क्या मैं दिखाऊँ-कुछ न संभाला,
समय से ऐसा परा मेरा पाला,
हो गयी सतरंगी वेला ये अकेला|
शायद इसमें ही कुछ मिल जाय,
जिसके लिए चला था,
वो भी संभल जाय|
फिर से जागी है इक आशा,
रात भयाबह अब जायेगी,
अपनी सुबह अब आएगी |
नीरसता को सींची आशा,
फिर से दे डाली मुझे सपने,
सपने पुरे होने पर,
मिल जायेंगे घर और अपने|
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