संवेदनशील मन
वो चुप रहा ।
सौ में नब्बे दफे ,
बच गया संघर्ष से ।
पर अंदर ही अंदर,
कुछ टूटता रहा ।
अपनापन दुने गति से ,
उससे छूटता रहा ।
छोटे जख्मों की,
एहसास बड़ी होती है ।
कुछ कह न पाओ,
तो बात बड़ी होती है ।
चुप रहना और टूट जाना ,
उसे भाता रहा ।
शायद नियति पर,
भरोसा था उसका ।
पर था कभी भी ,
नियति पर आश्रित नहीं ।
दूरदर्षी था वो ,
उसे एहसास था ।
वह अपने टूटन को
सहेज लेगा ।
गर कुछ बोला
तो सामने वाला ।
अपना टूटन,
सहेज न पाएगा ।
अपने ही नजरों में,
गिर जायेगा ।
इसलिए संवेदनशील मन को,
चुप रहना और टूट जाना,
हमेशा से भाता रहा ।
पर जब भी यह टूटा,
तो कुछ निर्माण किया ।
मन को ले बुद्धि संग ,
कुछ सात्विक आह्वान किया ।
बड़ी ही शांति और शुकुन मिला,
उसे इस निर्माण से ।
बस यही तो है,
ये संवेदनशील मन ।
पता नहीं लोग , साध्य के समान साधन को महत्त्व क्यूँ नहीं देते।
येन - केन- प्रकारेण साध्य की प्राप्ति कभी भी जीवन में समरसता की
भाव को उत्पन्न नहीं कर सकती है और न ही यह व्यक्ति की संवेदना को
पुष्ट करती है, जो की एक दैवीय गुण है। इस भागम -भाग के बीच भी अपने
संवेदनशील मन को तो सुनना ही होगा । ----कुँवर----
दृश्य के लिए गूगल का साभार ।
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