मन - सखा भी - बैरी भी
----------- MIND (मन)-----------
मन कभी मदारी बनता, और कभी खुद बंदर ।
जब बुद्धि हावी होती, मदारी का खेल निभाता यह ।
और जब इन्द्रियाँ हावी होती, खुद बंदर बन जाता यह ।
नाच भी सकता - नचा भी सकता, है अदभुत खेल दिखाता यह ।
जब यह नाचता, बैरी बन जाता यह ।
और जब नचाता, हितैषी हो जाता यह ।
जब हितैषी मन नचाता, खुद का सखा बन जाता यह|
और जब खुद नाचता, खुद का बैरी बन जाता यह ।
हितैषी मन अंतरतम से कहता है,
खुद ही खुद का सखा बनो, निज ही निज का भला करो ।
फिर है ना कोई धरा पे शक्ति, जो पथ से विचलित कर दे ।
लक्ष्य सुनिश्चित किया जो मन ने, उसे पाने से खुद को बंचित कर दे ।
है गीता की शाश्वत वाणी, खुद ही खुद का सखा बनो ।
नियंत्रित मन का आवाहन कर , अपने पथ पर बढे चलो ।
फिर मन मानक बन जायगा, निश्चित हि अपने लक्ष्य को पाएगा ।
----कुँवर--
कहाँ से ढूंढ लाऊँ ...
hmm... after long time .... nice & motivating poem.
जवाब देंहटाएंThanks Dear...
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